हिंदी साहित्य के मशहूर आलोचक और वरिष्ठ लेखक प्रोफेसर मैनेजर पांडेय का 81 साल की उम्र में रविवार को निधन हो गया। गंभीर, विचारोत्तेजक मार्क्सवादी धारा के आलोचनात्मक लेखन के लिए जाने जाते रहे मैनेजर पांडेय के निधन से साहित्य जगत में संवेदनाओं की लहर है। बड़ी संख्या में लेखक, पत्रकार, संपादक, भाषा-साहित्य के अकादमिक जगत, साहित्यिक संगठनों और प्रकाशन संस्थानों से जुड़े लोगों ने मैनेजर पांडेय के निधन पर शोक जताया है। सबका कहना है कि मैनेजर पांडेय के निधन से भाषा साहित्य को कभी नहीं भरा जा सकने वाला नुकसान हुआ है।
प्रोफेसर मैनेजर पांडेय के निधन के बाद सोशल मीडिया पर भी उनको जानने और मानने वाले कई लोगों ने अपनी शोक और संवेदनाएं जाहिर की हैं। लोगों ने उनके साथ बिताए वक्त और उनके योगदानों का जिक्र करते हुए उन्हें याद किया है।
फूले फूले चुनि लियै, काल्हि हमारी बार…
ट्विटर पर साहित्यकार अशोक कुमार पांडे ने लिखा कि प्रोफ़ेसर मैनेजर पांडेय जी का निधन …एक युग रीतता जा रहा है। कुछ जगहें कभी नहीं भरी जा सकतीं। दलित विचारक और राजनेता डॉ. उदित राज ने लिखा कि हिन्दी के प्रख्यात आलोचक मैनेजर पांडेय जी हमारे बीच नही रहे। एक दिन सबको जाना है। मेरी भाव भीनी श्रंधाजली! जेएनयू के प्रोफेसर और लेखक डॉ. पुरुषोत्तम अग्रवाल ने फूले फूले चुनि लियै, काल्हि हमारी बार… लिखकर मैनेजर पांडेय को याद किया। गीतकार सागर ने लिखा कि हमेशा याद आते रहेंगे।
सबसे ऊपर एक मुक्त मनुष्य थे मैनेजर पांडेय
जेएनयू में प्रोफेसर मैनेजर पांडेय के निर्देशन में पीएचडी के पहले छात्र चमनलाल ने फेसबुक पर उन्हें याद किया। दिल्ली में मैनेजर पांडेय के पड़ोसी और साहित्यकार त्रिलोकनाथ पांडेय ने उनसे कभी मिलने का साहस नहीं कर सकने को याद करके दुख जताया। वहीं बीएचयू के प्रोफेसर रामाज्ञा शशिधर ने प्रो मैनेजर पांडेय को एक विद्रोही संस्कृतिपुरुष, एक सरोकारी आलोचक, एक आकाशधर्मा शिक्षक, एक विटी और सम्मोहक वक्ता और सबसे ऊपर एक मुक्त मनुष्य बताते हुए नमन किया।
छोटे गांव से साहित्य के शीर्ष तक अकादमिक सफर
मैनेजर पाण्डेय का जन्म बिहार के गोपालगंज जिले के लोहटी में 23 सितंबर, 1941 को हुआ था। हिंदी भाषा और साहित्य में अपनी अलग पहचान बनाने वाले भोजपुरी भाषी मैनेजर पांडेय की उच्च शिक्षा (एमए और पीएचडी) काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में हुई थी। शुरुआत में उन्होंने बरेली कॉलेज, बरेली और जोधपुर विश्वविद्यालय में अध्यापन किया। इसके बाद जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली में हिंदी के प्रोफेसर और भारतीय भाषा केन्द्र के अध्यक्ष भी रहे। अपने अध्यापन के पेशे में भी उन्होंने लंबी लकीर खींच दी।
तुलसीदास से प्रेरित और प्रभावित रहे मैनेजर पांडेय
लोक जीवन से गहरे जुड़े आलोचक मैनेजर पांडेय खुद को तुलसीदास से अधिक प्रेरित और प्रभावित मानते और बताते थे। वहीं उन्होंने भक्त कवि सूरदास पर अपनी महत्वपूर्ण पुस्तक “भक्ति आंदोलन और सूरदास का काव्य” लिखी। उनका कहना था कि तुलसीदास के ‘संग्रह-त्याग न बिनु पहिचाने’ से उन्होंने अपना आलोचनात्मक विवेक बनाया था। इसके अलावा वह विरोध करने की प्रवृत्ति को लोकतंत्र की आत्मा मानते थे। इसका वह साहित्य के क्षेत्र में खुद भी पालन करते थे।
मैनेजर पांडेय के उल्लेखनीय कामों पर एक नजर
हिंदी साहित्य जगत को उनके महत्वपूर्ण योगदानों में से कुछ खास पुस्तकें हैं- शब्द और कर्म, साहित्य और इतिहास-दृष्टि, भक्ति आन्दोलन और सूरदास का काव्य, सूरदास (विनिबंध), साहित्य के समाजशास्त्र की भूमिका, आलोचना की सामाजिकता, उपन्यास और लोकतंत्र, हिंदी कविता का अतीत और वर्तमान, आलोचना में सहमति-असहमति, भारतीय समाज में प्रतिरोध की परम्परा, साहित्य और दलित दृष्टि, शब्द और साधना, संगीत रागकल्पद्रुम, लोक गीतों और गीतों में 1857, अनभै सांचा, आलोचना की सामाजिकता और संकट के बावजूद आदि।
साक्षात्कार विधा में उन्होंने ‘मैं भी मुंह में जबान रखता हूं’, संवाद-परिसंवाद, बतकही और ‘मेरे साक्षात्कार’ जैसी रचनाएं कीं। इन कृतियों के जरिए उन्होंने हिंदी साहित्य के इतिहास लेखन में शोध और आलोचना की नई कड़ियों को जोड़ने का बेहद अहम काम किया।
पुरस्कार और सम्मान
प्रोफेसर मैनेजर पांडेय को उनके आलोचनात्मक लेखन के लिए समय-समय पर कई पुरस्कारों से भी सम्मानित किया जा चुका है। इनमें हिन्दी अकादमी, दिल्ली द्वारा ‘शलाका सम्मान’, राष्ट्रीय दिनकर सम्मान, रामचन्द्र शुक्ल शोध संस्थान, वाराणसी का गोकुल चन्द्र शुक्ल पुरस्कार और दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा का सुब्रह्मण्य भारती सम्मान आदि शामिल हैं।